“जब जवाब स्त्री चिपका दे कि “तुम छूओ जब तुम्हारा मन करे, तुम #S*x करो जब तुम्हे जरूरत हो और मुझे जब ज़रूरत हो तो तुमसे कैसे कहु,कब कहु और कहु तो तुम मेरे बारे में क्या सोचोगे यही सोच कर ना कहु, बताओ में तुम कब,किस रात आओगे,कब मुझ पर मेहरबान होंगे…क्या में सिर्फ इंतज़ार करू..”
फिर बीज़ की जिम्मेवारी कौन लेगा,खेत का मालिक या वो जिसने अल्प समयी ‘सिजारे’ (अस्थायी रूप से खेती करने वाला) पर लिया है, सवाल तो खेत से ही किया जायेगा ना…
कल्पना कीजिये…. फ़सल का तौर तरीका सिजारे पर काम में लेने वाले की तरह हो गया तो….और होगा क्यूं नही…उसकी मेहनत, पसीना लगा है…DNA मिलना तो स्वाभाविक हैं..! उसके उपरांत क्या खेत की आलोचना की जायेगी…या बीजारोपण का अनुकूल समय ‘चूका’ ना दे पाने पर उसकी अक्षमता मानी जायेगी…..या बीज़ रोपित हो जाने पर भी उचित दवाइयों का सेवन ना कर पाने हेतु उसी को दंडित किया जायेगा…
यहा मालिक कर्म करने हेतु अक्षम माना गया है और खेत को निराई गुड़ाई हेतु सिजारेदार कि कृपा पर आश्रित देखा गया हैं… फिर सवाल खेत से क्यूं….? मालिक से क्यूं नही….उसकी अक्षमता पर अंगुली क्यूं नही उठायी जाये….
“जब जवाब स्त्री चिपका दे कि “तुम छूओ जब तुम्हारा मन करे, तुम #S*x करो जब तुम्हे जरूरत हो और मुझे जब ज़रूरत हो तो तुमसे कैसे कहु,कब कहु और कहु तो तुम मेरे बारे में क्या सोचोगे यही सोच कर ना कहु, बताओ में तुम कब,किस रात आओगे,कब मुझ पर मेहरबान होंगे…क्या में सिर्फ इंतज़ार करू..”
अब फसल किसकी ये तो तय DNA report ही करे…. मेने सुना था सदियों पहले हम बन्दर थे…..फिर डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत के अनुसार धीरे धीरे हमारा विकास हुआ हम चिंपांजी और फिर मानव में तब्दील हो गये… आदिम हालात से कालांतर में प्रगति की और गांव से शहरीकरण हो गया….
एक सभ्यता बनी….उसी में जीवन यापन करने लगे फिर जब दौर आगे बढ़ा तो स्त्री पुरुष के संबन्धों पर खुल कर बात करने लगे….जो क्रिया रात में बन्द कमरे में पूर्ण की जाती थी उसे खुलेपन का नाम लेकर खुले में ही ले आये….
चार दोस्त चाय की दुकान चुटकियां लेकर बोल रहे थे…”यार फ़लाने बीवी बड़ी मस्त हैं”…..ठहाके लगाये….
तभी पास खड़ा एक जागरूक नागरिक बोल पड़ा “वैसे तो तुम्हारी बीबियां भी मस्त ही है उनकी मस्ती कम कहा हैं दुसरो से” एक मिनिट तक तो सबको सांप सूंघ गया मानो लो पुरुष स्वाभिमान का पहाड़ भरभरा के टूट गया ज्वालामुखी सक्रिय हुये….खूब लाते घूंसे चले….कपड़े भी फटफटा गये…..!!
सा*ला दूसरे की बीवी ना हुई चर्चा का विषय हो गया तुम्हारे हमारे लिये… कुछ लोग स्त्री और पुरुष के यौनाचार को स्वतंत्र मानते हैं तो मानले…..कम से कम स्वछंद तो ना माने..!! संगीत सुनना अच्छी बात हैं पर कान फोड़ू साउंड चलाना अप्रासंगिक हैं उस पर दलील ये कि म्यूजिक सुनना हमारा fundamental Right हैं,कहा शोभा देता हैं..!
और जो 497 पर स्त्री पुरुष विवाहेत्तर सम्बन्धो पर अब तक अपने लब्बोलुबाबी भाषण पेल रहे है ये वही हैं जो घर में अपनी अर्धांगिनी को तो दो तालो में बन्द कर आये है और पड़ोस की महिलाओं के पूर्णतः अश्लील हो जाने की बाट जोह रहे हैं… धत्त बुड़बक..
बहुत खूब रवि भाई !!
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बेहतरीन लेख … तारीफ-ए-काबिल … Share करने के लिए धन्यवाद!! 🙂
welcome @hindindia
Apne bahut hi ache se smjhaya hai, thank you for sharing this article..
Thanks Shivani Ji keep visiting ATI
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